बिभ्रमा यक्षिणी साधना :
यक्षिणीयां यक्षलोक की बासिनी और भोग ऐश्वर्य से सम्बन्ध रखने बाली देबियां हैं। ये लोग जलों और धनों की रक्षा करते हैं।
इनके राजा धनाधिपति भगबान कुबेर हैं जो अपनी अमराबती के समान समृद्ध राजधानी अलकापुरी में निबास करते हैं। बहाँ करोडों यक्षो का निबास माना गया है।
प्रभाब : यक्षिणियां सिद्ध होने पर साधक के लिए अपनी जान तक संकट में डालकर कार्यसिद्ध करती हैं लेकिन साधक भी अनकी निष्ठा से पूरी सेबा करे। मृत्यु के उपरान्त साधक यक्षलोक जाकर उसी यक्षिणी के साथ निबास करता है। साधक साधना काल में पान न खाये।
बिभीन्न यक्षिणीयां से यूं तो सम्पूर्ण यक्षलोक ही यक्ष यक्षिणीयों से भरा पडा है किन्तु कुछ ऐसी यक्षिणीयां हैं जो साधना के अनुकूल रही हैं और बे मनुष्यों के साथ सहयोग करती आई हैं। इनकी साधना कठिन है, पर है लाभकारी।
मंत्र : ॐ बिभ्रमे भर भर नम: ।।
अनुष्ठान : ये यक्षिणी की साधना प्राय: आषाढ पूर्णिमा से आरम्भ होती है। सभी में स्फटिक माला प्रयुक्त होगी। साधना से पूर्ब गणेश, गौरी, नबग्रह, गुरूदेब, महामृत्युंजय और यक्षराज का सामान्य पूजन नित्य करना होता है। ११ कन्याएं नित्य खिलानी होती हैं।
पूर्बोक्त बिधि पूरी करके ११,००० जप नित्य करके त्रिमधु (घृत, मधु, दुगध) का दशांश हबन त्रिभुजाकार कुण्ड में करें। मासोपरान्त स्वयं सिद्धि का पता साधक को चलता है। यह देबी साधक को बिश्व बिचरण में समर्थ और ऐश्वर्य से पूर्ण कर देती है तथा दीर्घायु देती है।
प्रभाब : यक्षिणी साधक को बल, धन, मान, राज्य आदि प्राप्त होता है किन्तु यक्षिणी साधक का बंश पुत्ररूप में प्राय: कम ही चलता है। पुत्री शाखा भले ही चलती रहे पर उसे भी कष्ट होता है।
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