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कपाल सिद्धि अभ्यास :
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किरात साधना :
किरात साधना :
 
यह भि तंत्र बिद्दा की एक अत्यंत गोपनीय सिद्धि हैं। इसकी महिमा भी “ब्रह्मा” एब “मुक्ति” की प्राप्ति के सन्दर्भ में है। बैसे इससे अतिन्द्रिय अनुभूतियां, भबिष्य दर्शन, सम्म्होन, तेज (प्रभा/औरा) ब्रूधि, भाब का का फलित होना आदि चमत्कारिक शक्तियां प्राप्त होती है। जीबनशक्ति बढ जाती है। स्म्भबत: नबयोबन और कायाकल्प की बिधियों मे भि इनका महत्व है, परन्तु इससे प्रामाणिक स्वरुप कहीं प्राप्त नहिं हुआ। मेरे शरीर पर प्रभाब पडा या नहि, मे नहिं जानता, परन्तु एसा प्रभाब तो नहिं ही है, जिसे कायाकल्प या नबयौबन कहा जा सके, परन्तु जिस अम्रूत तत्व (मूल्तत्व, परमात्मा तत्व) की प्राप्ति इससे होती है, उससे सभी कुछ सम्भब है। असम्भब भी सम्भब हो सकता है। कारण यह है कि इस ब्रह्माण्ड मे जितने गुणों का प्रत्यख्य हो रहा है, भूतकाल में हो रहा था या भबिष्य में होगा, सब इसी तत्व से उत्पन्न होता है। यह बिलख्यण तत्व स्वयं ही सर्किट बनाता है, स्वयं ही उसके मध्य नाभिक उत्पन्न करता है और इस प्रज्वलित परमाणु को पम्प करता हुआ ब्रह्माण्ड बना देता है।
 
कपाल सिद्धि भी इसी को प्राप्त करने की साधना है। किरात साधना भी इसी तत्व की साधना है और इसका भी ध्यान बिन्दु बहि है, जो कपाल सिद्धि का है।
 
किरात साधना अभ्यास :
नासिका बिन्दु (नाक के अग्र नोक का निचला बिन्दु) से पीछे गर्दन की ह्ड्डी तक खोपडी दो भागों में होति है ।चांद के आगे-पिछे से आपस में जुड जाती है, परन्तु बह जोड बिद्दमान होता है और यहाँ एक उर्जा नली होती है, जो नासिका बिन्दु से चांद के मध्य तक, फिर बहाँ से नीचे जाती है।
 
यहाँ चांद के मध्य मे ध्यान लगाकर मानसिक आरे से इस मध्य जोड को रगड-रगडकर खोला जाता है। यह मानसिक ध्यान की एक गोपनीय क्रिया है।इस अभ्यास मे पहले चांद के मध्य ध्यान लगाकर मध्य बिन्दु को निचे खीचने का प्रयत्न किया जाता है और इसे पूर्ण अभ्यासित कर आगे-पीछे खींचते हुए जोड को एसे रगडा जाता है, जैसे चीरा जा रहा हो। इससे यह जोड तीब्र उर्जा प्रबाह से भरने लगता है और चमत्कारिक बिलख्यण शक्तियां प्राप्त होती है।
 
यदि थोडा साबधान रहा जाये और आबश्यक्ता से अधिक समय तक एक ही दिन अभ्यास न किया जाये, तो यह अभ्यास स्वयम भी किया जा सक्ता है। कपाल सिद्धि का भी अभ्यास।
 
किरात साधना का गोपनीय रहस्य :
जब मैंने तंत्र विज्ञान एब भारत के प्राचीन ज्ञान –विज्ञान मे गोते लगाने प्रारम्भ किये थे, तो प्रारम्भिक समय में इस साधना के सम्बन्ध मे बनारस के एक तांत्रिक से ग्यांत हुआ था।उसने “काशी” का बह कुण्ड भी दिखाया, जहा तथाकथित किरात साधना की जाती थी। उसने कहा कि दो ब्यक्ति मुक्ति पाने बाले को स्नान कराकर आरे से खोपडे पर से चीरते थे। इससे उसे मुक्ति मिल जाति थी और बे सीधे बैकुण्ठ जाता था।
 
सच कहुं, तो आज जबकि मैंने कठिन तप से इन रह्स्यों को जाना है, एक तरफ आधुनिक्ताबादियों की मूर्खता पर ख्योम होता है, तो दूसरी और इन पाखण्डी तांत्रिको, योगियों, महान अबतारों की ब्याख्या से। पता नहीं किस मुर्ख ने “किरात साधना” का यह अर्थ लगाया और क्या पता कभि धार्मिक अंन्धआस्था में यह प्रथा भी रही हो। जाने कितने निर्दोष मारे गये होंगे, बह भी क्रूरता से।
 
तंत्र मे काशी का अर्थ यह किरात रेखा ही है। नाक के बिंन्दु से चंद्रमा तक जाने बाली मध्य रेखा।यह शिब के त्रिशूल का मध्य शूल है।
 
तंत्र मे इसी काशी में ध्यान को लगाकर आरे की तरह चलाकर यह साधना की जाती है।जब चंद्रमा से दोनों और नीचे तक (नासिका- गर्दन की हड्डी का उपरी बिन्दु ) यह पूर्ण मानसिक घर्षण से खुल जाता है। यह कुण्ड का अर्थ चंद्रमा का गड्ढा है।
 
इससे जो चमत्कारिक शक्तियां प्राप्त होती है, बह अबर्णनीय हैं।इसके साथ ही अन्तद्रुष्टि बढती है, अन्त्ज्ञान उत्पन्न होता है। परमात्मा की अनुभूति होति है, जिससे परमानन्द की प्राप्ति होती है।
 
 
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जय माँ कामाख्या

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