सर्वेश्वरी जगन्माता भगवती महामाया (Bhagwati Mahamaya) के दस स्वरूपों का संक्षिप्त चरित्र – देवी के 10 रूप
– भगवती महामाया (Bhagwati Mahamaya) काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला- का वर्णन तोडल तंत्र में किया गया है । शक्ति के यह रूप संसार के सृजन का सार है । इन शक्तियों की उपासना मनोकामनाओं की पूर्ति सिद्धि प्राप्त करने के लिए की जाती है । देवताओं के मंत्रों को मंत्र तथा देवियों के मंत्रों को विद्या कहा जाता है । इन मंत्रों का सटीक उच्चारण अति आवश्यक है । जो साधक इन भगवती विद्याओं की उपासना करता है, उसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सबकी प्राप्ति हो जाती है ।
1. Bhagwati Mahamaya Kali {{इनका बीज मंत्र ‘क्रीं ‘ है।}}
दस महाविद्याओं में काली प्रथम है । महा भागवत के अनुसार महाकाली ही मुख्य हैं । उन्हीं के उग्र और सौम्य दो रूपों में अनेक रूप धारण करने वाली दश महाविद्याएं हैं । कलियुग में कल्प वृक्ष के समान शीघ्र फलदायी एवं साधक की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करने में सहायक हैं । शक्ति साधना के दो पीठों में भगवती काली की उपासना श्यामापीठ पर करने योग्य है । वैसे तो किसी भी रूप में उन महामाया की उपासना फल देने वाली है परंतु सिद्धि के लिए उनकी उपासना वीरभाव से की जाती है । महाशक्ति भगवती महाकाली अत्यंत भयानक एवं डरावनी हैं, असुर जो स्वभाव से ही दुष्ट थे उनके रक्त की धर बह युक्त हाल ही में कटे हुए मस्तकों की माला देवी धारण करती हैं । इनके दंत-पंक्ति अत्यंत विकराल हैं, मुंह से निकली हुई जिह्वा को देवी ने अपने भयानक दन्त पंक्ति से दबाये हुए हैं; अपने भैरव या स्वामी के छाती में देवी नग्न अवस्था में खड़ी हैं, कुछ-एक रूपों में देवी दैत्यों के कटे हुए हाथों की करधनी धारण करती हैं । देवी भगवती महाकाली चार भुजाओं से युक्त हैं; अपने दोनों बाएँ हाथों में खड़ग तथा दुष्ट दैत्य का हाल ही कटा हुआ सर धारण करती हैं जिससे रक्त की धार बह रहीं हो तथा बाएँ भुजाओं से सज्जनों को अभय तथा आशीर्वाद प्रदान करती हैं । इनके बिखरे हुए लम्बे काले केश हैं, जो अत्यंत भयानक प्रतीत होते हैं, जैसे कोई भयानक आँधी के काले विकराल बादल समूह हो । देवी तीन नेत्रों से युक्त हैं तथा बालक शव को देवी ने कुंडल रूप में अपने कान में धारण कर रखा हैं । भगवती देवी रक्त प्रिया तथा महा-श्मशान में वास करने वाली हैं, देवी ने ऐसा भयंकर रूप रक्तबीज के वध हेतु धारण किया था ।
इनकी कम से कम 9,11,21 माला का जप काले हकीक की माला से किया जाना चाहिए ।
Bhagwati Mahamaya Kali Mantra :
भगवती महामाया काली मंत्र :-“ॐ क्रीं क्रीं क्रीं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं क्रीं स्वाहाः”
महाविद्या भगवती महामाया काली (Bhagwati Mahamaya kali) ने हयग्रीव नमक दैत्य के वध हेतु नीला शारीरिक वर्ण धारण किया तथा देवी का वह उग्र स्वरूप उग्र तारा के नाम से विख्यात हुई । देवी प्रकाश बिंदु रूप में आकाश के तारे के सामान विद्यमान हैं, फलस्वरूप वे तारा नाम से विख्यात हैं । देवी तारा, भगवान राम की वह विध्वंसक शक्ति हैं, जिन्होंने रावण का वध किया था । महाविद्या तारा मोक्ष प्रदान करने तथा अपने भक्तों को समस्त प्रकार के घोर संकटों से मुक्ति प्रदान करने वाली महाशक्ति हैं । देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध मुक्ति से हैं, फिर वह जीवन और मरण रूपी चक्र से हो या अन्य किसी प्रकार के संकट मुक्ति हेतु । भगवान शिव द्वारा, समुद्र मंथन के समय हलाहल विष पान करने पर, उनके शारीरिक पीड़ा के निवारण हेतु, इन्हीं देवी तारा ने माता की भांति भगवान शिव को शिशु रूप में परिणति कर, अपना अमृतमय दुग्ध स्तन पान कराया था । फलस्वरूप, भगवान शिव को उनकी शारीरिक पीड़ा ‘जलन’ से मुक्ति मिली थीं, महाविद्या तारा जगत जननी माता के रूप में एवं घोर से घोर संकटो की मुक्ति हेतु प्रसिद्ध हुई । देवी के भैरव, हलाहल विष का पान करने वाले अक्षोभ्य शिव हैं । मुख्यतः देवी की आराधना, साधना मोक्ष प्राप्त करने हेतु, तांत्रिक पद्धति से की जाती हैं। संपूर्ण ब्रह्माण्ड में जितना भी ज्ञान इधर उधर फैला हुआ हैं, वह सब इन्हीं देवी तारा या नील सरस्वती का स्वरूप ही हैं । देवी का निवास स्थान घोर महा-श्मशान हैं, देवी ज्वलंत चिता में रखे हुए शव के ऊपर प्रत्यालीढ़ मुद्रा धारण किये नग्न अवस्था में खड़ी हैं, (कहीं-कहीं देवी बाघाम्बर भी धारण करती हैं) नर खप्परों तथा हड्डियों की मालाओं से अलंकृत हैं तथा इनके आभूषण सर्प हैं । तीन नेत्रों वाली देवी उग्र तारा स्वरूप से अत्यंत भयानक प्रतीत होती हैं।
2. Bhagwati Mahamaya Tara : {{इनका बीज मंत्र ‘ह्रूं’ है।}}
भगवती महामाया काली (Bhagwati Mahamaya Kali) को नीलरूपा और सर्वदा मोक्ष देने वाली और तारने वाली होने के कारण तारा कहा जाता है । भारत में सबसे पहले महर्षि वशिष्ठ ने तारा की आराधना की थी । इसलिए तारा को वशिष्ठाराधिता तारा भी कहा जाता है । आर्थिक उन्नति एवं अन्य बाधाओं के निवारण हेतु तारा महाविद्या का स्थान महत्वपूर्ण है । इस साधना की सिद्धी होने पर साधक की आय के नित नये साधन खुलने लगते हैं और वह पूर्ण ऐश्वर्यशाली जीवन व्यतीत कर जीवन में पूर्णता प्राप्त कर लेता है । इनका बीज मंत्र ‘ह्रूं’ है । इन्हें नीलसरस्वती के नाम से भी जाना जाता है । अनायास ही विपत्ति नाश, शत्रुनाश, वाक्-शक्ति तथा मोक्ष की प्राप्ति के लिए तारा की उपासना की जाती है । हयग्रीव नमक दैत्य के वध हेतु नीला शारीरिक वर्ण धारण किया तथा देवी का वह उग्र स्वरूप उग्र तारा के नाम से विख्यात हुई । देवी प्रकाश बिंदु रूप में आकाश के तारे के सामान विद्यमान हैं, फलस्वरूप वे तारा नाम से विख्यात हैं । देवी तारा, वह विध्वंसक शक्ति हैं, जिन्होंने रावण का वध किया था। महाविद्या तारा मोक्ष प्रदान करने तथा अपने भक्तों को समस्त प्रकार के घोर संकटों से मुक्ति प्रदान करने वाली महाशक्ति हैं । देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध मुक्ति से हैं, फिर वह जीवन और मरण रूपी चक्र से हो या अन्य किसी प्रकार के संकट मुक्ति हेतु । भगवान शिव द्वारा, समुद्र मंथन के समय हलाहल विष पान करने पर, उनके शारीरिक पीड़ा के निवारण हेतु, इन्हीं देवी तारा ने माता की भांति भगवान शिव को शिशु रूप में परिणति कर, अपना अमृतमय दुग्ध स्तन पान कराया था । फलस्वरूप, भगवान शिव को उनकी शारीरिक पीड़ा ‘जलन’ से मुक्ति मिली थीं, महा-विद्या तारा जगत जननी माता के रूप में एवं घोर से घोर संकटो की मुक्ति हेतु प्रसिद्ध हुई । देवी के भैरव, हलाहल विष का पान करने वाले अक्षोभ्य शिव हैं । मुख्यतः देवी की आराधना, साधना मोक्ष प्राप्त करने हेतु, तांत्रिक पद्धति से की जाती हैं। संपूर्ण ब्रह्माण्ड में जितना भी ज्ञान इधर उधर फैला हुआ हैं, वह सब इन्हीं देवी तारा या नील सरस्वती का स्वरूप ही हैं । देवी का निवास स्थान घोर श्मशान हैं, देवी ज्वलंत चिता में रखे हुए शव के ऊपर प्रत्यालीढ़ मुद्रा धारण किये नग्न अवस्था में खड़ी हैं, (कहीं-कहीं देवी बाघाम्बर भी धारण करती हैं) नर खप्परों तथा हड्डियों की मालाओं से अलंकृत हैं तथा इनके आभूषण सर्प हैं । तीन नेत्रों वाली देवी उग्र तारा स्वरूप से अत्यंत भयानक प्रतीत होती हैं । आपको लाल मूगाँ या स्फाटिक या काला हकीक की माला का इस्तेमाल कर सकते है । कम से कम बारह माला का जप किया जाना चाहिए। कृपा करके इस देवी के मंत्रो मे स्त्रीं बीज का ही प्रयोग करे क्योकि त्रीं एक ऋषि द्वारा शापित है । इस शाप का निदान केवल त्रीं को स्त्रीं बनाने पर स्वयँ हो जाता है ।
Bhagwati Mahamaya Tara Mantra :
भगवती महामाया तारा मंत्र :- “ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं फट”
3. Bhagwati Mahamaya Shodashi : {{इनका बीज मंत्र ‘ॐ स्त्रीम’ है।}}
भगवती महामाया षोडशी (Bhagwati Mahamaya Shodashi) माहेश्वरी शक्ति की सबसे मनोहर श्री विग्रह वाली सिद्ध देवी हैं । षोडशी को श्री विद्या भी माना गया है । इनके ललिता, राज-राजेश्वरी, महात्रिपुरसुंदरी, बालापञ्चदशी आदि अनेक नाम हैं, वास्तव में षोडशी साधना को राज-राजेश्वरी इसलिए भी कहा गया है क्योंकि यह अपनी कृपा से साधारण व्यक्ति को भी राजा बनाने में समर्थ हैं । चारों दिशाओं में चार और एक ऊपर की ओर मुख होने से इन्हें पंचवक्रा कहा जाता है । इनमें षोडश कलाएं पूर्ण रूप से विकसित हैं । इसलिए ये षोडशी कहलाती है । महाविद्या महा त्रिपुरसुंदरी स्वयं इनके षोडशी, राज-राजेश्वरी, बाला, ललिता, मिनाक्षी, कामेश्वरी अन्य नाम भी विख्यात हैं । अपने नाम के अनुसार देवी तीनों लोकों में सर्वाधिक सुंदरी हैं तथा चिर यौवन युक्त १६ वर्षीय युवती हैं, इनकी रूप तथा यौवन तीनों लोकों में सभी को मोहित करने वाली हैं । मुख्यतः सुंदरता तथा यौवन से घनिष्ठ सम्बन्ध होने के परिणामस्वरूप, मोहित कार्य और यौवन स्थाई रखने हेतु महाविद्या त्रिपुरसुंदरी की साधना उत्तम मानी जाती हैं । सोलह अंक जो पूर्णतः का प्रतीक हैं (सोलह की मात्रा में प्रत्येक वस्तु पूर्ण मानी जाती हैं, जैसे १६ आना एक रुपये होता हैं), देवी सोलह प्रकार की कलाओं से पूर्ण हैं और सोलह प्रकार के मनोकामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं; तात्पर्य हैं सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं कारणवश महाविद्या षोडशी नाम से विख्यात हैं । देवी ही श्री रूप में धन, संपत्ति, समृद्धि दात्री श्री शक्ति के नाम से विख्यात हैं, इन्हीं महाविद्या की आराधना कर कमला नाम से विख्यात दसवी महाविद्या धन की अधिष्ठात्री हुई तथा श्री की उपाधि प्राप्त की । श्री यंत्र जो यंत्र शिरोमणि हैं, साक्षात् देवी का स्वरूप हैं; देवी की आराधना-पूजा श्री यंत्र में की जाती हैं । कामाख्या महाविद्या त्रिपुरसुन्दरी से ही सम्बंधित तंत्र पीठ हैं, जहाँ सती की योनि पतित हुई थीं; स्त्री योनि के रूप में यहाँ देवी की पूजा-आराधना होती हैं । देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध पारलौकिक शक्तियों से हैं, समस्त प्रकार की दिव्य, अलौकिक तंत्र तथा मंत्र शक्तिओं (इंद्रजाल) की देवी अधिष्ठात्री हैं । तंत्र मैं उल्लेखित मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, स्तम्भन इत्यादि (जादुई शक्ति), कर्म इनकी कृपा के बिना पूर्ण नहीं होते हैं । अपने भक्तों को हार प्रकार की शक्ति देने में समर्थ हैं देवी षोडशी, चिर यौवन तथा सुन्दरता प्रदाता हैं देवी त्रिपुरसुंदरी, राज-राजेश्वरी रूप में देवी ही तीनों लोकों का शासन करने वाली हैं ।
भगवती महामाया षोडशी देवी (Bhagwati Mahamaya Shodashi Devi) शांत मुद्रा में लेटे हुए सदाशिव के नाभि से निर्गत कमल-आसन पर बैठी हुई हैं, इनके चार भुजाएं हैं तथा अपने चार भुजाओं में देवी पाश, अंकुश, धनुष और बाण धारण करती हैं । देवी के आसन को ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा यम-राज अपने मस्तक पर धारण किये हुए हैं; देवी तीन नेत्रों से युक्त एवं मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण किये हुए अत्यंत मनोहर प्रतीत होती हैं, सहस्रों उगते हुए सूर्य के समान कांति युक्त देवी का शारीरिक वर्ण हैं ।
रुद्राक्ष की माला का इस्तेमाल किया जा सकता है। कम से कम दस माला जप करें ।
Bhagwati Mahamaya Shodashi Mantra :
भगवती महामाया षोडशी मंत्र – “ॐ ऐं ह्रीं श्रीं त्रिपुर सुंदरीयै नमः”
4. Bhagwati Mahamaya Bhubaneshwari : {{इनका बीज मंत्र ‘ह्रीं ‘ है।}}
महाविद्याओं में भुवनेश्वरी महाविद्या को आद्या शक्ति अर्थात मूल प्रकृति कहा गया है । इसलिए भक्तों को अभय और समस्त सिद्धियां प्रदान करना इनका स्वाभाविक गुण है । भगवती भुवनेश्वरी (Bhagwati Mahamaya Bhubaneshwari) की उपासना पुत्र-प्राप्ति के लिए विशेष फलप्रदा है । अपने हाथ में लिए गये शाकों और फल-मूल से प्राणियों का पोषण करने के कारण भगवती भुवनेश्वरी ही ‘शताक्षी’ तथा ‘शाकम्भरी’ नाम से विख्यात हुई ।तीनों लोक स्वर्ग, पृथ्वी तथा पाताल की ईश्वरी महाविद्या भुवनेश्वरी नाम की शक्ति हैं, महाविद्याओं में देवी चौथे स्थान पर अवस्थित हैं । अपने नाम के अनुसार देवी त्रिभुवन या तीनों लोकों की स्वामिनी हैं, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को धारण करती हैं । सम्पूर्ण जगत के पालन पोषण का दाईत्व इन्हीं भुवनेश्वरी देवी का हैं, कारणवश देवी जगन-माता तथा जगत-धात्री नाम से भी विख्यात हैं। पंच तत्व १. आकाश, २. वायु ३. पृथ्वी ४. अग्नि ५. जल, जिनसे चराचर जगत के प्रत्येक जीवित तथा अजीवित तत्व का निर्माण होता हैं, वह सब इन्हीं देवी की शक्तिओं द्वारा संचालित होता हैं, पञ्च तत्वों को इन्हीं देवी भुवनेश्वरी ने निर्मित किया हैं । देवी कि इच्छानुसार ही चराचर ब्रह्माण्ड (तीनों लोक) के समस्त तत्वों का निर्माण होता हैं। महाविद्या भुवनेश्वरी साक्षात् प्रकृति स्वरूपा हैं तथा देवी की तुलना मूल प्रकृति से भी की जाती हैं । देवी भुवनेश्वरी, भगवान शिव के समस्त लीला विलास की सहचरी हैं, सखी हैं । देवी नियंत्रक भी हैं तथा भूल करने वालों के लिया दंड का विधान भी करती हैं, इनकी भुजा में सुशोभित अंकुश नियंत्रक का प्रतीक हैं । जो विश्व को वामन करने हेतु वामा, शिवमय होने से ज्येष्ठा तथा कर्मा नियंत्रक, जीवों को दण्डित करने के परिणामस्वरूप रौद्री, प्रकृति निरूपण करने के कारण मूल-प्रकृति कही जाती हैं । भगवान शिव का वाम भाग देवी भुवनेश्वरी के रूप में जाना जाता हैं तथा सदा शिव को सर्वेश्वर होने की योग्यता इन्हीं के संग होने से प्राप्त हैं । देवी भुवनेश्वरी सौम्य तथा अरुण के समान अंग-कांति युक्त युवती हैं; देवी के मस्तक पर अर्ध चन्द्र सुशोभित हैं एवं तीन नेत्र हैं तथा मुखमंडल मंद-मंद मुस्कान की छटा युक्त हैं । देवी चार भुजाओं से युक्त हैं, दाहिने भुजाओं से देवी अभय तथा वर मुद्रा प्रदर्शित करती हैं तथा बाएं भुजाओं में पाश तथा अंकुश धारण करती हैं; देवी नाना प्रकार के अमूल्य रत्नों से युक्त विभिन्न अलंकार धारण करती हैं । दुर्गम नामक दैत्य के अत्याचारों से त्रस्त हो समस्त देवता तथा ब्राह्मणों ने हिमालय पर जाकर इन्हीं भुवनेशी देवी की स्तुति की थीं । सताक्षी रूप में इन्होंने ही पृथ्वी के समस्त नदियों-जलाशयों को अपने अश्रु जल से भर दिया था, शाकम्भरी रूप में देवी ही अपने हाथों में नाना शाक-मूल इत्यादि खाद्य द्रव्य धारण कर प्रकट हुई तथा सभी जीवों को भोजन प्रदान किया । अंत में देवी ने दुर्गमासुर दैत्य का वध कर, तीनों लोकों को उसके अत्याचार से मुक्त किया तथा दुर्गा नाम से प्रसिद्ध हुई । इनके जप के लिए स्फटिक की माला का प्रयोग करें और कम से कम ग्यारह या इक्कीस माला का मंत्र जप करें ।
Bhagwati Mahamaya Bhubaneshwari Mantra :
भगवती महामाया भुवनेश्वरी मन्त्र – “ॐ ऐं ह्रीं श्रीं नमः”
5. Bhagwati Mahamaya Chhinmasta {{इनका बीज मंत्र ‘ॐ हूं ॐ ‘ है।}}
परिवर्तनशील जगत का अधिपति कबंध है और उसकी शक्ति छिन्नमस्ता है । छिन्नमस्ता का स्वरूप अत्यंत ही गोपनीय है । इनका सर कटा हुआ है और इनके कबंध से रक्त की तीन धाराएं प्रवाहित हो रही हैं जिसमें से दो धाराएं उनकी सहचरियां और एक धारा देवी स्वयं पान कर रही हैं इनकी तीन आंखें हैं और ये मदन और रति पर आसीन हैं । इनका स्वरूप ब्रह्मांड में सृजन और मृत्यु के सत्य को दर्शाता है। ऐसा विधान है कि चतुर्थ संध्याकाल में छिन्नमस्ता की उपासना से साधक को सरस्वती सिद्धि हो जाती है । इस प्रकार की साधना के लिए दृढ़ संकल्प शक्ति की आवश्यकता होती है और जो साधक जीवन में निश्चय कर लेते हैं कि उन्हें साधनाओं में सफलता प्राप्त करनी है वे अपने गुरु के मार्गदर्शन से ही इन्हें संपन्न करते हैं । छिन्नमस्ता शब्दों दो शब्दों के योग से बना हैं: प्रथम छिन्न और द्वितीय मस्ता । दोनों शब्दों का अर्थ हैं, छिन्न : अलग या पृथक तथा मस्ता : मस्तक, इस प्रकार जिनका मस्तक देह से अलग हैं वे छिन्नमस्ता कहलाती हैं । महाविद्याओं की श्रेणी में महाविद्या छिन्नमस्ता पाँचवें स्थान पर अवस्थित हैं । देवी अपने मस्तक को अपने ही हाथों से काट कर, अपने अन्य हाथ में धारण की हुई हैं । मस्तक कट जाने के पश्चात भी देवी जीवित हैं, यह देवी की श्रेष्ठ योग साधना की ओर इंगित करती हैं; योग साधना के उच्चतम स्तर पर अवस्थित हैं महाविद्या छिन्नमस्ता । देवी, प्रचंड चंडिका जैसे अन्य नामों से भी जानी जाती हैं, जो अत्यंत उग्र स्वभाव वाली हैं । देवी का यह स्वरूप घोर डरावना, भयंकर तथा उग्र हैं, देवी छिन्नमस्ता का स्वरूप अन्य समस्त देवी-देवताओं से भिन्न हैं । देवी स्वयं ही तीनों गुण सात्विक, राजसिक तथा तामसिकका प्रतिनिधित्व करती हैं, त्रिगुणमयी सम्पन्न हैं । देवी ब्रह्माण्ड के परिवर्तन चक्र का प्रतिनिधित्व करती हैं, संपूर्ण ब्रह्मांड इस चक्र पर टिका हुआ हैं । सृजन तथा विनाश का संतुलित होना, ब्रह्माण्ड के सुचारु परिचालन हेतु अत्यंत आवश्यक हैं । देवी छिन्नमस्ता की आराधना जैन तथा बौद्ध धर्म में भी की जाती हैं; बौद्ध धर्म में देवी, छिन्नमुण्डा वज्रवराही के नाम से जानी जाती हैं । देवी जीवन के परम सत्य मृत्यु को दर्शाती हैं, वासना से नूतन जीवन की उत्पत्ति तथा अंततः मृत्यु की प्रतीक स्वरूप हैं । देवी, स्व-नियंत्रण के लाभ, अनावश्यक तथा अत्यधिक मनोरथों के परिणामस्वरूप पतन, योग अभ्यास द्वारा दिव्य शक्ति, आत्म-नियंत्रण, बढ़ती इच्छा पर नियंत्रण की प्रतीक हैं । महाविद्या छिन्नमस्ता योग अभ्यास के पर्यन्त इच्छाओं के नियंत्रण और यौन वासना के दमन का प्रतिनिधित्व करती हैं । महाविद्या छिन्नमस्ता का स्वरूप अत्यंत ही गोपनीय हैं, जिसे कोई सिद्ध पुरुष ही जान सकता हैं । देवी के कटे हुए गले से रक्त की तीन धार निर्गत हो रही हैं, जिनमें से देवी एक धार से स्वयं रक्त-पान कर रहीं हैं तथा अन्य दो धाराएँ इन्होंने अपने सखी सहचरियों को पान करने हेतु प्रदान कर रखी हैं । इनके साथ इनकी दो सखी सहचरी डाकिनी तथा वारिणी हैं; जिनके क्षुधा निवारण हेतु ही देवी ने अपने ही खड्ग से स्वयं अपने मस्तक को अलग कर दिया । देवी कामदेव-तथा रति के ऊपर विराजमान हैं, यहाँ वे काम या अत्यधिक अनावश्यक वासनाओं से उत्पन्न विनाश को प्रदर्शित कर रहीं हैं । देवी के आभूषण सर्प हैं, देवी तीन नेत्रों से युक्त तथा मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण करती हैं तथा इन्होंने नर-मुंडो की माला धारण कर राखी हैं । आप रुद्राक्ष या काले हकीक की माला से कम से कम ग्यारह माला या बीस माला मंत्र जप करना चाहिए ।
Bhagwati Mahamaya Chhinmasta Mantra :
भगवती महामाया छिन्नमस्ता मंत्र- “श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्र वैरोचनीयै हूं हूं फट स्वाहा:”
6. Bhagwati Mahamaya Tripura Bhairavi
यह देवी प्रेत आत्मा के लिए बहुत ही खतरनाक है, बुरे तंत्रिक प्रयोगो के लिए, सुन्दर पति या पत्नी की प्राप्ति के लिए, प्रेम विवाह, शीघ्र विवाह, प्रेम में सफलता के लिए श्री त्रिपुर भैरवी देवी की साधना करनी चाहिए । इनकी साधना तुरंत प्रभावी है । जिस किसी तांत्रिक समस्या का समाधान नही हो रहा है, यह देवी उस समस्या का यह जड से विनाश करती है । त्रिपुर भैरवी स्वरूप में छठी महाविद्या के रूप में अवस्थित हैं । त्रिपुर शब्द का अर्थ हैं, तीनों लोक! स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल तथा भैरवी शब्द विनाश के एक सिद्धांत के रूप में अवस्थित हैं । तात्पर्य हैं तीन लोकों में नष्ट या विध्वंस की जो शक्ति हैं, वही भैरवी हैं । देवी पूर्ण विनाश से सम्बंधित हैं तथा भगवान शिव जिनका सम्बन्ध विध्वंस या विनाश से हैं, देवी त्रिपुर भैरवी उन्हीं का एक भिन्न रूप मात्र हैं । देवी भैरवी विनाशकारी प्रकृति के साथ, विनाश से सम्बंधित पूर्ण ज्ञानमयी हैं; विध्वंस काल में अपने भयंकर तथा उग्र स्वरूप सहित, शिव की उपस्थिति के साथ संबंधित हैं । देवी तामसी गुण सम्पन्न हैं, देवी का सम्बन्ध विध्वंसक तत्वों तथा प्रवृति से हैं, देवी! काली के रूप समान हैं । देवी का सम्बन्ध विनाश से होते हुए भी वे सज्जन मानवों हेतु नम्र हैं; दुष्ट प्रवृति युक्त, पापी मानवों हेतु उग्र तथा विनाशकारी शक्ति हैं महाविद्या त्रिपुर-सुंदरी; दुर्जनों, पापियों हेतु देवी की शक्ति ही विनाश कि ओर अग्रसित करती हैं । इस ब्रह्मांड में प्रत्येक तत्व नश्वर हैं तथा विनाश के बिना उत्पत्ति, नव कृति संभव नहीं हैं । केवल मात्र विनाशकारी पहलू ही हानिकर नहीं हैं, रचना! विनाश के बिना संभव नहीं हैं, तथापि विनाश सर्वदा नकारात्मक नहीं होती हैं, सृजन और विनाश, परिचालन लय के अधीन हैं जो ब्रह्मांड के दो आवश्यक पहलू हैं । देवी कि शक्ति ही, जीवित प्राणी को मृत्यु की ओर अग्रसित करती हैं तथा मृत को पञ्च तत्वों में विलीन करने हेतु । भैरवी शब्द तीन अक्षरों से मिल कर बना हैं, प्रथम ‘भै या भरणा’ जिसका तात्पर्य ‘रक्षण’ से हैं, द्वितीय ‘र या रमणा’ रचना तथा ‘वी या वमना’ मुक्ति से सम्बंधित हैं; प्राकृतिक रूप से देवी घोर विध्वंसक प्रवृति से सम्बंधित हैं । योगिनियों की अधिष्ठात्री देवी हैं महाविद्या त्रिपुर-भैरवी; देवी की साधना मुख्यतः घोर कर्मों में होती हैं, देवी ने ही उत्तम मधु पान कर महिषासुर का वध किया था । समस्त भुवन देवी से ही प्रकाशित हैं तथा एक दिन इन्हीं में लय हो जाएंगे, भगवान् नरसिंह की अभिन्न शक्ति हैं देवी त्रिपुर भैरवी । देवी गहरे शारीरिक वर्ण से युक्त एवं त्रिनेत्रा हैं तथा मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण करती हैं । चार भुजाओं से युक्त देवी भैरवी अपने बाएं हाथों से वर तथा अभय मुद्रा प्रदर्शित करती हैं और दाहिने हाथों में मानव खप्पर तथा खड्ग धारण करती हैं । देवी रुद्राक्ष तथा सर्पों के आभूषण धारण करती हैं, मानव खप्परों की माला देवी अपने गले में धारण करती हैं । इस देवी का मंत्र जप आप मूंगे की माला से से कर सकते है और कम से कम पंद्रह माला मंत्र जप करनी चाहिए ।
Bhagwati Mahamaya Tripura Bhairavi Mantra :
भगवती महामाया त्रिपुर भैरवी मंत्र – “ॐ ह्रीं भैरवी कलौं ह्रीं स्वाहा:”
7. Bhagwati Mahamaya Dhoomavati {{इनका बीज मंत्र ‘ॐ धूं ‘ है।}}
भगवती महामाया धूमावती (Bhagwati Mahamaya Dhoomavati) महाशक्ति अकेली है तथा स्वयं नियंत्रिका है । इसका कोई स्वामी नहीं है। इसलिए इन्हें विधवा कहा गया है । भगवती महामाया धूमावती उपासना (Bhagwati Mahamaya Dhoomavati Upasana) विपत्ति नाश, रोग निवारण, युद्ध जय आदि के लिए की जाती है । यह लक्ष्मी की ज्येष्ठा हैं, अतः ज्येष्ठा नक्षत्र में उत्पन्न व्यक्ति जीवन भर दुख भोगता है । महाविद्या धूमावती अकेली एवं स्व: नियंत्रक हैं, इनके स्वामी रूप में कोई अवस्थित नहीं हैं तथा देवी भगवान शिव की विधवा हैं । दस महाविद्याओं की श्रेणी में देवी धूमावती सातवें स्थान पर अवस्थित हैं तथा उग्र स्वभाव वाली अन्य देवियों के सामान ही उग्र तथा भयंकर हैं । देवी का सम्बन्ध ब्रह्माण्ड के महाप्रलय के पश्चात उस स्थिति से हैं, जहां वे अकेली होती हैं अर्थात समस्त स्थूल जगत के विनाश के कारण शून्य स्थिति रूप में अकेली विराजमान रहती हैं । महाप्रलय के पश्चात केवल मात्र देवी की शक्ति ही चारों ओर विद्यमान रहती हैं; देवी का स्वरूप धुएं के समान हैं । तीव्र क्षुधा हेतु इन्होंने अपने पति भगवान शिव का ही भक्षण किया था, जिसके पश्चात शिव जी धुएं के रूप में देवी के शरीर से बाहर निकले थे; देवी धुएं के रूप में अवस्थित रहती हैं । देवी दरिद्रों के गृह में दरिद्रता के रूप में विद्यमान रहती हैं तथा अलक्ष्मी नाम से विख्यात हैं । अलक्ष्मी, देवी लक्ष्मी की बहन हैं, परन्तु गुण तथा स्वभाव से पूर्णतः विपरीत हैं । देवी भगवती (Devi Bhagwati Mahamaya) धूमावतीकी उपस्थिति, सूर्य अस्त पश्चात प्रदोष काल पश्चात रहती हैं तथा देवी अंधकारमय स्थानों पर आश्रय लेती हैं । देवी का सम्बन्ध स्थाई अस्वस्थता से भी हैं फिर वह शारीरिक हो या मानसिक । देवी के अन्य नामों में निऋति भी हैं, जिनका सम्बन्ध मृत्यु, क्रोध, दुर्भाग्य, सड़न, अपूर्ण अभिलाषाओं जैसे नकारात्मक विचारों तथा तथ्यों से हैं जो जीवन में नकारात्मक भावनाओं को जन्म देता हैं । देवी कुपित होने पर समस्त अभिलषित मनोकामनाओं, सुख, धन तथा समृद्धि का नाश कर देती हैं, देवी कलह प्रिया हैं, अपवित्र स्थानों में वास करती हैं । रोग, दुर्भाग्य, कलह, निर्धनता, दुःख के रूप में देवी विद्यमान हैं ।
देवी भगवती महामाया धूमावती (Bhagwati Mahamaya Dhoomavati) का स्वरूप अत्यंत ही कुरूप हैं, भद्दे एवं विकट दन्त पंक्ति हैं, एक वृद्ध महिला के समान देवी दिखाई देती हैं । विधवा होने के कारण देवी श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, श्वेत वर्ण ही इन्हें प्रिय हैं, तीन नेत्रों से युक्त भद्दी छवि युक्त हैं देवी धूमावती । देवी रुद्राक्ष की माला आभूषण रूप में धारण करती हैं, इनके हाथों में एक सूप हैं; माना जाता हैं देवी जिस पर कुपित होती हैं उसके समस्त सुख इत्यादि अपने सूप पर ही ले जाती हैं । इन्होंने ही अपने शरीर से उग्र-चंडिका को प्रकट किया हैं, देवी सर्वदा ही अतृप्त हैं, इनकी क्षुधा निवारण आज तक नहीं हुई हैं; असुरों के कच्चे मांस से इनकी अंगभूत शिखाएं तृप्त हुई थीं । जो साधक अपने जीवन में निश्चिंत और निर्भीक रहना चाहते हैं उन्हें धूमावती साधना करनी चाहिए । मोती की माला या काले हकीक की माल का प्रयोग मंत्र जप में करें और कम से कम नौ माला मंत्र जप करें ।
Bhagwati Mahamaya Dhoomavati Mantra :
भगवती महामाया धूमावती मंत्र- “ॐ धूं धूं धूमावती देव्यै स्वाहा:”
8. Bhagwati Mahamaya Bagalamukhi {{इनका बीज मंत्र ‘ॐ ह्लीं ‘ है।}}
यह साधना शत्रु बाधा को समाप्त करने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण साधना है । ये सुधा समुद्र के मध्य में स्थित मणिमय मण्डप में रत्नमय सिंहासन पर विराजमान है । इस विद्या के द्वारा दैवी प्रकोप की शांति, धन-धान्य के लिए और इनकी उपासना भोग और मोक्ष दोनों की सिद्धि के लिए की जाती है । इनकी उपासना में हरिद्र माला, पीत पुष्प एवं पीत वस्त्र का विधान हैं इनके हाथ में शत्रु की जिह्वा और दूसरे हाथ में मुद्रा है । बगलामुखी दो शब्दों के मेल से बना हैं, पहला बगला तथा दूसरा मुखी । बगला से अभिप्राय हैं ‘विरूपण का कारण’ और मुखी से तात्पर्य हैं मुख । देवी का सम्बन्ध मुख्यतः स्तम्भन कार्य से हैं, फिर वह मनुष्य मुख, शत्रु, विपत्ति हो या कोई घोर प्राकृतिक आपदा । महाविद्या बगलामुखी महाप्रलय जैसे महा-विनाश को भी स्तंभित करने की पूर्ण शक्ति रखती हैं; देवी स्तंभन कार्य की अधिष्ठात्री हैं । स्तंभन कार्य के अनुरूप देवी ही ब्रह्म अस्त्र का स्वरूप धारण कर, तीनों लोकों में किसी को भी स्तंभित कर सकती हैं । शत्रुओं का नाश तथा कोर्ट-कचहरी में विजय हेतु देवी की कृपा अत्यंत आवश्यक हैं, विशेषकर झूठे अभियोगों प्रकरणों हेतु । देवी! पीताम्बरा नाम से त्रि-भुवन में प्रसिद्ध हैं, पीताम्बरा शब्द भी दो शब्दों के मेल से बना हैं, पहला पीत तथा दूसरा अम्बरा; अभिप्राय हैं पीले रंग का अम्बर धारण करने वाली । देवी को पीला रंग अत्यंत प्रिय हैं, पीले रंग से सम्बंधित द्रव्य ही इनकी साधना-आराधना में प्रयोग होते हैं; वे पीले फूलो की माला धारण करती हैं, देवी पीले रंग के वस्त्र इत्यादि धारण करती हैं, पीले रंग से देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध हैं । पञ्च तत्वों द्वारा संपूर्ण ब्रह्माण्ड निर्मित हुई हैं, जिनमें पृथ्वी तत्व का सम्बन्ध पीले रंग से होने के कारण देवी को पिला रंग प्रिय हैं । देवी की साधना दक्षिणाम्नायात्मक तथा ऊर्ध्वाम्नाय दो पद्धतिओं से कि जाती हैं, उर्ध्वमना स्वरूप में देवी दो भुजाओं से युक्त तथा दक्षिणाम्नायात्मक में चार भुजाएं हैं ।
महाविद्या बगलामुखी समुद्र मध्य स्थित मणिमय मंडप में स्थित रत्न सिंहासन पर विराजमान हैं । देवी भगवती बगलामुखी (Devi Bhagwati Mahamaya Bagalamukhi) तीन नेत्रों से युक्त तथा मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण किये हुए हैं, इनकी दो भुजाएँ हैं बाईं भुजा से इन्होंने शत्रु की जिह्वा पकड़ रखी हैं तथा दाहिने भुजा से इन्होंने मुगदर धारण कर रखी हैं । देवी का शारीरिक वर्ण सहस्रों उदित सूर्यों के सामान हैं तथा नाना प्रकार के अमूल्य रत्न जड़ित आभूषण से देवी सुशोभित हैं, देवी का मुख मंडल अत्यंत ही सुन्दर तथा मनोरम हैं । सत्य-युग में सम्पूर्ण पृथ्वी को नष्ट करने वाला वामक्षेप (तूफान) आया, जिस कारण प्राणियों के जीवन पर संकट छा गया । भगवान विष्णु ने देवी बगलामुखी की सहायता से ही उस घोर तूफ़ान का स्तंभन किया तथा चराचर जगत के समस्त जीवों के प्राणों की रक्षा की । देवी का प्रादुर्भाव भगवान विष्णु के तेज से हुआ, जिसके कारण देवी सत्व गुण संपन्न हैं ।
हल्दी की माला से कम से कम 8, 16, 21 माला का जप करें। इस विद्या को ब्रह्मास्त्र भी कहा जाता है और यह भगवान विष्णु की संहारक शक्ति है ।
Bhagwati Mahamaya Bagalamukhi Mantra :
भगवती महामाया बगलामुखी मन्त्र – “ॐ ह्लीं बगलामुखी देव्यै ह्लीं ॐ नम:”
9. Bhagwati Mahamaya Maatangi {{इनका बीज मंत्र ‘ॐ ह्रीं ‘ है।}}
भगवती महामाया (Bhagwati Mahamaya) मातंग शिव का नाम और इनकी शक्ति मातंगी है । इनका श्याम वर्ण है और चंद्रमा को मस्तक पर धारण किए हुए हैं । इन्होंने अपनी चार भुजाओं में पाश, अंकुश, खेटक और खडग धारण किया है । उनके त्रिनेत्र सूर्य, सोम और अग्नि हैं । ये असुरों को मोहित करने वाली और भक्तों को अभीष्ट फल देने वाली हैं । गृहस्थ जीवन को सुखमय बनाने के लिए मातंगी की साधना श्रेयस्कर है । महाविद्या मातंगी, महाविद्याओं में नवें स्थान पर अवस्थित हैं; देवी निम्न जाती एवं जनजातिओ से सम्बंधित रखती हैं । देवी भगवती (Devi Bhagwati Mahamaya) का एक अन्य विख्यात नाम उच्छिष्ट चांडालिनी भी हैं, देवी तंत्र क्रियाओं में पारंगत हैं, पूर्ण तंत्र ज्ञान की ज्ञाता हैं । इंद्रजाल या जादुई शक्ति से देवी परिपूर्ण हैं, वाक् सिद्धि, संगीत तथा अन्य ललित कलाओं में निपुण, सिद्ध विद्याओं से सम्बंधित हैं । महाविद्या मातंगी, केवल मात्र वचन द्वारा त्रि-भुवन में समस्त प्राणिओं तथा अपने घनघोर शत्रु को भी वश करने में समर्थ हैं, जिसे सम्मोहन क्रिया या वशीकरण कहा जाता हैं; देवी सम्मोहन विद्या की अधिष्ठात्री हैं । देवी का सम्बन्ध प्रकृति, पशु, पक्षी, जंगल, वन, शिकार इत्यादि से भी हैं तथा जंगल में वास करने वाले आदिवासिओ, जनजातिओ द्वारा देवी विशेषकर पूजिता हैं । ऐसा माना जाता हैं कि ! देवी की ही कृपा से वैवाहिक जीवन सुखमय होता हैं; देवी की उत्पत्ति शिव तथा पार्वती के परस्पर प्रेम से हुई थीं, तथापि पारिवारिक प्रेम हेतु देवी कृपा लाभकारी हैं । इस रूप में देवी चांडालिनी हैं तथा भगवान शिव चंडाल (चंडाल जो शमशान में शव दाह का कार्य करते हैं) । महाविद्या मातंगी, मतंग मुनि की पुत्री रूप से भी जानी जाती हैं । देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध उच्छिष्ट भोजन पदार्थों से हैं, देवी तभी उच्छिष्ट चांडालिनी नाम से विख्यात हैं तथा देवी की आराधना हेतु उपवास की भी आवश्यकता नहीं होती । देवी कि आराधना हेतु उच्छिष्ट सामाग्रीओं की आवश्यकता होती हैं चुकी देवी की उत्पत्ति शिव तथा पार्वती के उच्छिष्ट भोजन से हुई थी । देवी भगवती की आराधना सर्वप्रथम द्वारा की गई, मना जाता हैं ! तभी से भगवान विष्णु सुखी, सम्पन्न, श्री युक्त तथा उच्च पद पर विराजित हैं । देवी भगवती (Bhagwati Mahamaya) की आराधना बौद्ध धर्म में भी की जाती हैं, देवी बौद्ध धर्मं में भगवती मातागिरी नाम से विख्यात हैं ।
महाविद्या भगवती महामाया मातंगी (Bhagwati Mahamaya Maatangi) श्याम वर्णा या नील कमल के समान कांति युक्त हैं, तीन नेत्रों से युक्त हैं तथा अर्ध चन्द्र को अपने मस्तक पर धारण करती हैं । देवी चार भुजाओं से युक्त हैं, इन्होंने अपने दाहिने भुजाओं में वीणा तथा मानव खोपड़ी धारण कर रखी हैं तथा बायें भुजाओं में खड़ग धारण करती हैं एवं अभय मुद्रा प्रदर्शित करती हैं । देवी, लाल रंग की रेशमी साड़ी तथा अमूल्य रत्नों से युक्त नाना अलंकार धारण करती हैं, देवी भगवती (Bhagwati Mahamaya) के संग सर्वदा तोता पक्षी रहता हैं तथा ह्रीं बीजाक्षर का जप करता रहता हैं । स्फटिक की माला से मंत्र जप करें और बारह माला कम से कम मंत्र जप करना चहिए ।
Bhagwati Mahamaya Maatangi Mantra :
भगवती महामाया मातंगी मंत्र – “ॐ ह्रीं ऐं भगवती मतंगेश्वरी श्रीं स्वाहा:”
10. Bhagwati Mahamaya Kamala {{इनका बीज मंत्र ‘श्रीं ‘ है।}]
महाविद्या कमला या कमलात्मिका, महाविद्याओं में दसवें साथ पर अवस्थित हैं । देवी भगवती का सम्बन्ध सम्पन्नता, खुशहाल-जीवन, समृद्धि, सौभाग्य और वंश विस्तार जैसे समस्त सकारात्मक तथ्यों से हैं । दस महाविद्याओं की श्रेणी में देवी भगवती कमला अंतिम स्थान पर अवस्थित हैं, देवी पूर्ण सत्व गुण सम्पन्न हैं । स्वच्छता तथा पवित्रता देवी को अत्यंत प्रिय हैं तथा देवी ऐसे स्थानों में ही वास करती हैं । प्रकाश से देवी भगवती कमला (Bhagwati Mahamaya kamala) का घनिष्ठ सम्बन्ध हैं, देवी उन्हीं स्थानों को अपना निवास स्थान बनती हैं जहां अँधेरा न हो; इसके विपरीत भगवती के बहन अलक्ष्मी, ज्येष्ठा, निऋति जो निर्धनता, दुर्भाग्य से सम्बंधित हैं, अंधेरे एवं अपवित्र स्थानों को ही अपना निवास स्थान बनती हैं । कमल के पुष्प के नाम वाली देवी भगवती कमला, कमल या पद्म पुष्प से सम्बंधित हैं । कमल पुष्प दिव्यता का प्रतीक हैं, कमल कीचड़ तथा मैले स्थानों पर उगता हैं, परन्तु कमल की दिव्यता मैल से कभी लिप्त नहीं होती हैं । कमल अपने आप में सर्वदा दिव्य, पवित्र तथा उत्तम रहती हैं, देवी भगवती कमला के स्थिर निवास हेतु अन्तःकरण की स्वच्छता तथा पवित्रता अत्यंत आवश्यक हैं । देवी भगवती (Bhagwati Mahamaya) की आराधना तीनों लोकों में दानव, दैत्य, देवता तथा मनुष्य सभी द्वारा की जाती हैं, क्योंकि सभी सुख तथा समृद्धि प्राप्त करना चाहते हैं । देवी भगवती आदि काल से ही त्रि-भुवन के समस्त प्राणिओं द्वारा पूजित हैं । देवी की कृपा के बिना, निर्धनता, दुर्भाग्य, रोग इत्यादि जातक से सदा सम्बद्ध रहती हैं परिणामस्वरूप जातक रोग ग्रस्त, अभाव युक्त, धन-हीन रहता हैं । देवी भगवती महामाया (Bhagwati Mahamaya) ही समस्त प्रकार के सुख, समृद्धि, वैभव इत्यादि सभी को प्रदान करती हैं ।
स्वरूप से देवी भगवती महामाया कमला (Bhagwati Mahamaya Kamala) अत्यंत ही दिव्य तथा मनोहर एवं सुन्दर हैं, इनकी प्राप्ति समुद्र मंथन के समय हुई थीं तथा इन्होंने भगवान विष्णु को पति रूप में वरन किया था। देवी कमला ! तांत्रिक लक्ष्मी के नाम से भी जानी जाती हैं, श्री विद्या महा त्रिपुरसुन्दरी की आराधना कर देवी, श्री पद से युक्त हुई तथा भगवती महालक्ष्मी नाम से विख्यात भी । देवी की अंग-कांति स्वर्णिम आभा लिए हुए हैं, देवी तीन नेत्रों से युक्त हैं एवं सुन्दर रेशमी साड़ी तथा नाना अमूल्य रत्नों से युक्त अलंकारों से सुशोभित हैं । देवी भगवती कमला चार भुजाओं से युक्त हैं, इन्होंने अपने ऊपर के दोनों भुजाओं में पद्म पुष्प धारण कर रखा हैं तथा निचे के दोनों भुजाओं से वर तथा अभय मुद्रा प्रदर्शित कर रहीं हैं । देवी भगवती कमला को कमल का सिंहासन अति प्रिय हैं तथा वे सर्वदा कमल पुष्प से ही घिरी रहती हैं, हाथियों के झुण्ड देवी का अमृत से भरे स्वर्ण कलश से अभिषेक करते रहते हैं ।
कमलगट्टे की माला से कम से कम दस या इक्कीस भगवती (Bhagwati Mahamaya) माला मंत्र जप करना चाहिए ।
Bhagwati Mahamaya Kamala Mantra :
भगवती महामाया कमला मंत्र – “ॐ हसौ: जगत प्रसुत्तयै स्वाहा:”
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जय माँ कामाख्या